कभी सहमे बच्चे देखें हैं,
सड़कों के किनारों पर,
लाचार, निसहाय खड़े हुए,
बस एक हाथ की आशा में ||
कोई हाथ, बढ़ाता नहीं,
अनदेखा कर, बस चलता है,
वो अब भी खड़े हैं, रोटी को,
नहीं मिलने पर निराशा में ||
चल परे भटक, कहीं दूर निकल,
सुनकर भी, हाथ बढ़ाते हैं,
दिल नहीं समझता जाने क्यों,
हम शून्य हैं, उनकी भाषा में ||
क्या रे समझ नहीं पड़ती,
जब बोल दिया, तो आगे बढ़,
वो पीछे मुड़ मुड़ देखता है,
कुछ मिल जाने की, अभिलाषा में ||
सहसा बैठे, एक ख़याल आया,
कहीं मेरा बच्चा होता तो,
क्या कहूं, शिथिल हो गया पूरा,
अब ये सोच रहा हूँ, हताशा में ||
है दिया जिन्हें, वो भूल गए,
इस मानवता की नगरी में,
कुछ और नहीं तो, प्रेम ही दो,
कभी जी कर देखो, जिज्ञासा में ||
कृपया कर, जो अबोध है, निसहाय है, लाचार हैं और शायद कहीं न कहीं मजबूर हैं, उनके ओर प्यार से अपना हाथ बढ़ाएं, और अगर आप सबल हैं, तो अपनी छमता अनुसार उनकी मदद करें | वो भी हम जैसे इंसान है और उसी कुदरत की रचना, जिसके फलस्वरूप हम और आप इस वर्तमान जीवन में निहित हैं |
ये एक बोधपाठ है और शायद आप भी लेना चाहें, क्योंकी इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है|
धन्यवाद ||
Badhiya!!
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thanks budy
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Bahut sundar kavita….
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Dhanywaad Madhusudan ji
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अंतर्मन को झकझोरती मार्मिक कविता , आपने एक अच्छा सन्देश दिया है ,अगर सक्षम हो तो गरीब की सेवा जरूर करें , आपके होंसले ओर सोच को सलाम !!!
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Thanks Dear….
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Yatharthpurn rachna
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