मन अपने मन की करता है….!

बड़ा चंचल है, कहीं रुकता नहीं,
कहीं एक जगह पर टिकता नहीं,
बस घूमता है, नहीं मानता है,
बस अपने मन की करता है ॥

अरे अपने मन की करता है,
मेरा मन ही है, कोई और नहीं,
मैं रोकता हूँ, पर रुकता नहीं,
मन अपने मन की करता है ॥

जब पूछता हूँ, कुछ कहता नहीं,
कुछ कहता हूँ, तो सुनता नहीं,
कभी इधर गिरा, कभी उधर रुका,
मैं वहीँ खड़ा हूँ, बेबस सा ॥

ना जाने कितने जतन किये,
ना जाने कितना समझाया,
थोड़ा शांत ठहर, मत भाग उधर,
मैं जाने कितना चिल्लाया ॥

मन फिर से रुक कर, समझाता,
ना मुझ पर कोई पहरा है,
तू मुझ से है, मैं तुझ से नहीं,
आखिर तू इंसान जो ठहरा है ॥

जब सब बेबस है, मन के हाथों ,
मैं खुद को कैसे बयां करूँ,
कभी रोक लिया हो गर तुमने,
तो वो रास्ता मुझको दिखलाना ॥

7 thoughts on “मन अपने मन की करता है….!

    1. सत प्रतिशत सत्य और बहुत बढ़िया,

      वैसे मन की परिभाषा तभी तक दी जा सकती है, जब तक वो प्राण भरे इस शरीर में है, अन्यथा वो एक मुक्त आत्मा के सामान है जिसे किसी भी शरीर की आवश्यकता नहीं है|

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  1. मैं खुद को कैसे बयां करूँ,, अब इससे आगे क्या कहूँ ,सब कुछ आपने कहा दिया , लाजबाब रचना के लिए आपको बधाई💐

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