भाई दिखकर, फिर छुप जाती है,
जलती बुझती रहती है,
नयी रवानी लाती है,
फिर नयी कहानी बुनती है ||
मैं शब्दों के ढेर पर बैठा,
कभी कोसता हूँ, पुचकारता हूँ,
वो नए इठलाते, दर्पण सा,
बस नए नए रूप, दिखलाती है ||
“आशा” है ये मानस की,
ये निराश भी करती है,
पर जीना हो गर दुनिया में,
तो आशा में ही जीवन है ||
तू जीएगा, और पायेगा,
गर “आशा” है तुझमे शामिल,
गर टुटा हो, तू निराशा में,
तो उठती हुई, आशा से मिल ||
ये जीवन नहीं, संघर्ष है,
आशाओं पर टिका हुआ,
कभी रात, घनेरी आती है,
कभी सुबह भी, आएगी तेरी ||
ये आशा है कुछ और नहीं ||
वाह…. 👌👌👌
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thanks buddy
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Welcome….
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मैं शब्दों के ढेर पर बैठा,
कभी कोसता हूँ, पुचकारता हूँ,
वो नए इठलाते, दर्पण सा,
बस नए नए रूप, दिखलाती है –क्या खूब लिखा है।लाजवाब।
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Thanks Madhusudan ji
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कितनी खूबसुरत और प्रेरणादायक बात लिखी है आपने —_
गर “आशा” है तुझमे शामिल,
गर टुटा हो, तू निराशा में,
तो उठती हुई, आशा से मिल ||
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Dhanywaad Rekha ji…
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