“आशा” है ये मानस की….

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भाई दिखकर, फिर छुप जाती है,
जलती बुझती रहती है,
नयी रवानी लाती है,
फिर नयी कहानी बुनती है ||

मैं शब्दों के ढेर पर बैठा,
कभी कोसता हूँ, पुचकारता हूँ,
वो नए इठलाते, दर्पण सा,
बस नए नए रूप, दिखलाती है ||

“आशा” है ये मानस की,
ये निराश भी करती है,
पर जीना हो गर दुनिया में,
तो आशा में ही जीवन है ||

तू जीएगा, और पायेगा,
गर “आशा” है तुझमे शामिल,
गर टुटा हो, तू निराशा में,
तो उठती हुई, आशा से मिल ||

ये जीवन नहीं, संघर्ष है,
आशाओं पर टिका हुआ,
कभी रात, घनेरी आती है,
कभी सुबह भी, आएगी तेरी ||

ये आशा है कुछ और नहीं ||

 

7 thoughts on ““आशा” है ये मानस की….

  1. मैं शब्दों के ढेर पर बैठा,
    कभी कोसता हूँ, पुचकारता हूँ,
    वो नए इठलाते, दर्पण सा,
    बस नए नए रूप, दिखलाती है –क्या खूब लिखा है।लाजवाब।

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  2. कितनी खूबसुरत और प्रेरणादायक बात लिखी है आपने —_

    गर “आशा” है तुझमे शामिल,
    गर टुटा हो, तू निराशा में,
    तो उठती हुई, आशा से मिल ||

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